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इस तरह खेती करके किसान होंगे मालामाल, खाद की खेती से बढ़ेगी पैदावार



गोंडा:मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नकदी फसलों का क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में कमी आई, लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्त्रोतों की सीमित आपूर्ति से वर्तमान में हरी खाद का महत्व और भी बढ़ गया है। डॉ. मिथिलेश कुमार पांडेय वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र मनकापुर गोंडा ने बताया कि दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए दबाना ही हरी खाद देना है। डॉ. रामलखन सिंह वरिष्ठ वैज्ञानिक शस्य विज्ञान ने बताया कि भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव रहा है। ये फसलें अपनी जड़ ग्रन्थियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण में नाइट्रोजन का दोहन कर मिट्टी में स्थिर करती है। आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग कर लिया जाता है। दलहनी फसलें भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने, प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में विशेष स्थान रखती है। डॉ.पीके मिश्रा ने बताया कि दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेने के कारण मृदा क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। राइजोबियम जीवाणु दलहनी फसलों में 60 से 150 किग्रा० नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर स्थिर करते हैं । दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में सुधार होता है। सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता से आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है। हरी खाद की खेती के लिए ऐसी फसल का चुनाव करें जो शीघ्र वृद्धि करने वाली हो तथा  तना, शाखाएं और पत्तियॉ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटित होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके।फसलें मूसला जड़ वाली हों ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण कर सकें। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ वाली फसलें अंतः जल निकास बढ़ाने में आवश्यक होती है । दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियां वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को योगिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती हैं।फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करती हो। रोग एवं कीट कम लगते हों तथा बीज उत्पादन  क्षमता अधिक हो। हरी खाद के साथ-2 फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके।

हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढैंचा, उर्द, मॅूग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मॅूग का प्रयोग ज्यादा प्रचलित है। हरी खाद के लिए ढैंचा का बीज दर सामान्य भूमि में 40 किलोग्राम, ऊसर भूमि में 60 किलोग्राम तथा सनई का बीज दर  90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। डा. ज्ञानदीप गुप्ता मत्स्य वैज्ञानिक ने बताया कि सनई एवं ढैंचा की फसल को मत्स्य तालाबों के बंधों पर लगाकर बीज उत्पादन किया जा सकता है। इससे बंधों की मिट्टी का कटान भी नहीं होगा।

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