आनंद गुप्ता
रायबरेली महराजगंज स्वदेश सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती मनाई गई। इस अवसर पर द्वादश क की छात्रा हेमा ने उनके जीवन की बिपन्नताओं को संदर्भित करते हुए ननिहाल के सहयोग का परिचय देते हुए अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। वैभवी पाण्डेय का आंग्ल भाषा में उनके जीवन में संघ का प्रभाव एवं राष्ट्र भाव की अभिव्यक्ति आधारित वक्तव्य काफी सराहनीय रहा। एकादश की छात्रा ऋतु मिश्रा ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की अध्ययन में रुचि राष्ट्र प्रेम का भाव एवं आईसीएस की परीक्षा के बारे में बहुत ही श्रेष्ठ विचार प्रस्तुत किए। छात्रा ने दीन दयाल जी के जीवन के संघर्ष पर प्रकाश डालते हुए बताया कि बचपन में ही पिता का साया उजड़ गया, फिर भी मामा द्वारा उत्साहित करने पर आई सी एस परीक्षा पास की, परन्तु नौकरी पसंद न करके राष्ट्र सेवा का वृत लिया। साक्षी मौर्या ने पण्डित जी के प्रचारक रहते हुए व्रती जीवन से लेकर जनसंघ के राष्ट्रीय मंत्री व राष्ट्रीय अध्यक्ष तक के सफर का वर्णन किया। कार्यक्रम के अन्त में विद्यालय के प्रधानाचार्य वीरेन्द्र वर्मा ने छात्र छात्राओं को बताया कि विद्यालय स्तर पर ऐसे कार्यक्रमों को मनाने का उद्देश्य ऐसे मनीषी विद्वतजनों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को संवारना होता है। उन्होंने बताया कि पण्डित दीनदयाल जी का जीवन सादगी सम्पन्न था। 1937 में कानपुर विश्वविद्यालय के एस डी कॉलेज में स्नातक अध्ययन के दौरान अपने मित्र *बालू जी महाशब्दे* के सम्पर्क में आए और राष्ट्र साधक बन गए। कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है। इसके प्रहारों से शक्तिशाली और तेजस्वी व्यक्ति भी बलहीन, आश्रयहीन और तेजहीन होकर नष्ट हो जाता है। केवल उसी का अस्तित्व बचता है जो इसके कठोर प्रहारों को धैर्य, त्याग और शान्तभाव से सहन कर ले। इसके परिणाम स्वरूप् वह व्यक्ति यश, विद्वता और सम्मान के उस शिखर पर प्रतिष्ठित होता है, जहाॅ पहुॅचने की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
कुछ इसी तरह की विषम परिस्थितियाॅ दीनदयाल जी के सामने भी उपस्थित हुई। समय का पहला क्रूर प्रहार उन्हें तब झेलना पड़ा, जब वे मात्र ढाई वर्ष के थे। नवरात्रि के दिन चल रहे थे। चतुर्थी को इनके पिता पं. भगवती प्रसाद उपाध्याय किसी के घर भोजन करने गए। परन्तु वहाॅ काल उनकी प्रतिक्षा कर रहा था। उन्होंने जैसे ही भोजन आरंभ किया, वैसे ही मृत्यु ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया। किसी ने उनके भोजन में विष मिला दिया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
दीनदयाल एवं शिवदयाल के सिर से पिता का साया उठ गया और वे पितृ- प्रेम से वंचित हो गए। उनकी माता दोनों बच्चों को साथ लेकर अपने पिता के घर आ गई और वहीं रहकर दानों का लालन-पालन करने लगी।
किन्तु काल की क्रूर दृष्टि इनके परिवार पर पड़ चुकी थी। अतृप्त मृत्यु मुख खोलकर भोजन माॅग रही थी। अन्ततः दीनदयाल पर एक और वज्राघात हुआ। 8 अगस्त, 1924 को इनकी माता रामप्यारी दोनों पुत्रों को छोड़कर ब्रम्हलीन हो गई। उस समय दीनदयाल केवल आठ वर्ष के और शिवदयाल साढ़े छह वर्ष के थे। इस प्रकार दोनों बालक बाल्यकाल में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर अनाथ हो गये थे। इनके मामा का स्नेह इन दोनों पर अधिक था, अतः अब वे दोनों मामा की छत्र-छाया में पलने लगें।
काल की क्रीडा का अंतिम चरण अभी शेष था। वह दीनदयाल जी के सभी सांसारिक बंधन तोड़ देना चाहता था। 18 नवम्बर,1934 को छोटे भाई शिवदयाल की ’’निमोनिया’’ से मृत्यु हो गई। अब दीनदयाल जी संसार में अकेले रह गए थे। किंतु ननिहाल के लोगों ने उन्हें अकेला नहीं होने दिया और पूर्ण वात्सल्य भाव से उनका पालन-पोषण किया। संघ प्रेरित होकर 1955 में पण्डित जी कुछ दिन लखीमपुर में प्रचारक रहे इस दौरान गोला गोकर्णनाथ के कई दृष्टान्त साझा किए। प्रधानाचार्य वीरेन्द्र वर्मा ने भैया बहनों को बताया की उन्नीस वर्ष तक भयानक मृत्यु दर्शन के बावजूद भी दीनदयाल जी ने धैर्य त्याग नहीं किया, हर परीक्षा में नया कीर्तिमान स्थापित किया। आप सभी के लिए ये तथ्य प्रेरणा पुञ्ज बने ऐसी अपेक्षा के साथ शुभ की कामना। कार्यक्रम का सफल सञ्चालन आचार्या किरन कश्यप ने किया। विद्यालय की विज्ञ छात्राओं को विज्ञान मेले में श्रेष्ठ प्रदर्शन एवं स्थान प्राप्त करने पर विद्यालय की कन्या भारती की अध्यक्ष शिवांकी मौर्या ने मेडल से सम्मानित किया।
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