अलीम ख़ान
मुसाफिरखाना अमेठी : उमस भरी गर्मी, सीने पर हाथ और लबों पर या हुसैन की सदाओं के साथ क्षेत्र के भनौली गांव में शनिवार को बहुत ही गमगीन माहौल में मोहर्रम का जुलूस निकाला गया। 10 मोहर्रम यानि आशूरा के दिन इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की याद में ताबूत निकाला गया। या हुसैन-या हुसैन की सदाओं के साथ अज़ादारों ने इमाम हुसैन का ताबूत उठाया और मातम करते हुए जुलूस निकाला।
सुबह से ही मजलिसों का सिलसिला शुरू हो गया। सुबह सबसे पहले मौलाना आसिफ हुसैन के घर पर मजलिस हुई। उसके बाद कई घरों के साथ-साथ बड़े इमामबाड़े, छोटे इमामबाड़े, दरगाहे आलिया व पूरे बस्ती में मजलिस हुई। मजलिस के बाद आमाल-ए-आशूरा किया गया, जिसमें भारी तादाद में लोगों ने शिरकत की।
ताबूत, अलम और ताज़िया के साथ जुलूस बड़े इमामबाड़े से निकलकर अपने तयशुदा मार्ग से जामा मस्जिद इमामबाग पहुंचा। जहां लोगों ने नमाज़ पढ़ी। नमाज़ के बाद जुलूस वापस बड़े इमामबाड़े पहुंचा और यहां अंजुमन सिपाहे हुसैनी के नौजवानों ने ज़ंजीरज़नी कर बीबी फातेमा को उनके लाल का पुरसा दिया। यहां मौलाना इक़बाल हुसैन ने तकरीर की और लोगों को कर्बला के शहीदों के बारे में बताया। इसके बाद जुलूस छोटे इमामबाड़े पहुंचा, जहां मौलाना खादिम अब्बास ने तकरीर की। इसके बाद नौहा मातम के साथ जुलूस आगे बढ़ा और दरगाहे आलिया होते हुए कर्बला पहुंचा, जहां अज़ादारों ने ताज़िया दफ्न किया। इस दौरान सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए और सीओ मुसाफिरखना गौरव सिंह, एसएचओ अमर सिंह सहित भारी पुलिस बल तैनात रहा।
क्यों मनाया जाता है मोहर्रम ?
आज से करीब 1400 साल पहले कर्बला में इंसाफ की जंग हुई थी। इस जंग में पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए थे। इस्लाम की रक्षा के लिए उन्होंने खुद को कुर्बान कर दिया था। यह घटना मुहर्रम के 10वें दिन यानी रोज-ए-आशूरा के दिन हुई थी। इसी कारण मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं।
इस दिन शिया समुदाय के लोग मातम मनाते हैं, मजलिस पढ़ते हैं और काले रंग के कपड़े पहनकर शोक व्यक्त करते हैं। इस दिन शिया समुदाय के लोग भूखे-प्यासे रहकर शोक व्यक्त करते हैं। ऐसा मानना है कि इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोगों को भी भूखा रखा गया था और उन्हें इसी हालत में शहीद किया गया था।
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