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25 जून वर्ष 1975 को आज ही के दिन इंदिरा गांधी ने लगाया था देश में आपातकाल ,जानिए कैसे गुजरा था वह दौर,21 महीने आपातकाल के इस काले कानून ने हिलाकर रख दी थी भारत की नींव



उमेश तिवारी  

भारत में ऐतिहासिक आंतरिक आपातकाल के आज 48 साल पूरे हो गए। 25 जून 1975 को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कांग्रेस की सरकार ने इसे देश पर थोपा था। 21 महीने तक लागू आंतरिक आपातकाल के दौरान 1 लाख से ज्यादा राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया था। 



आपातकाल के दौरान आम नागरिकों के जीने के अधिकार छीन लिए गए थे। राजनीतिक विरोधियों पर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) के तहत कार्रवाई होती थी. मीसा कानून वाले आरोपियों की सुनवाई अदालत में भी नहीं होती थी। 



21 महीने की आपातकाल ने भारत के लोकतंत्र को हिला दिया। इसे लागू करने में देश के 5 नेताओं की अहम भूमिका थी, जिस पर बाद में सवाल भी उठा. आपातकाल के 48 वर्ष पूरे होने पर हम उन्हीं 5 नेताओं के बारे में जानते हैं।


सिद्धार्थ शंकर रे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के पोते और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की आपातकाल लगाने में बड़ी भूमिका थी। रे ने ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी।



आपातकाल का प्रस्ताव तैयार करने से लेकर वरिष्ठ नेताओं तक को मनाने का काम रे ने ही किया था।2009 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में रे ने आपातकाल को सही भी ठहराया था। 


इंटरव्यू में रे ने कहा था कि उस वक्त चारों तरफ अफरा-तफरी मची हुई थी और उसे कंट्रोल करने के लिए आपातकाल लगाना जरूरी था। 


सिद्धार्थ शंकर रे ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत विधान चंद्र रॉय के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में शुरू की थी। रे कानूनविद् के साथ-साथ अच्छे वक्ता भी थे। बंगाल की पॉलिटिक्स से निकलकर जल्द ही वे केंद्र में सक्रिय हो गए।


बांग्लादेश युद्ध के दौरान रे ने मध्यस्थता की भूमिका निभाई। बांग्लादेश मुक्ति सेना और भारत सरकार के बीच कॉर्डिनेशन का काम करते थे। इंदिरा गांधी के करीबी होने की वजह से उन्हें बंगाल का मुख्यमंत्री भी बनाया गया।


रे कांग्रेस की तरफ से बंगाल के आखिरी मुख्यमंत्री बने। 1977 में इंदिरा की हार के बाद रे ने सक्रिय राजनीति छोड़ दी। हालांकि, 1986 में उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाया गया। नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान वे अमेरिका में राजदूत भी बने। 


 बंसीलाल हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री और संजय गांधी के करीबी बंसीलाल की भी गिनती आपातकाल के खलनायकों में होती है। इंदिरा गांधी के चचेरे भाई और गुजरात के राज्यपाल रहे बीके नेहरू ने अपनी अपनी आत्मकथा, 'नाइस गाइज़ फ़िनिश सेकेंड' में इसका जिक्र भी किया है।


नेहरू लिखते हैं मैं आपातकाल लगने से पहले बंसीलाल से मिला था। उन्हें मैंने राष्ट्रपति शासन के बारे में बताया तो वे हरियाणवी लहजे में बोले- अरे नेहरू साहब, ये सब इलेक्शन-फिलेक्शन का झगड़ा खत्म करिए। मैं तो कहता हूं बहनजी को प्रेसिडेंट फॉर लाइफ बना दीजिए।


राजनीतिक विरोधियों पर कठोर कार्रवाई का सुझाव भी बंसीलाल का ही था और उन्हें इसका कभी मलाल भी नहीं रहा। बंसीलाल के निर्देश पर ही गुड़गांव के 200 मुसलमानों का प्रशासन ने नसबंदी कर दिया था। 


साल 1978 में कोर्ट में सुनवाई के दौरान भिवानी के एक उपायुक्त राम सहाय वर्मा ने कहा था कि हरियाणा के सभी अधिकारी बंसीलाल के चमचे के रूप में कार्य करने के लिए मजबूर थे। 


बंसीलाल 1968 में हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। कुछ साल बाद उन्होंने संजय गांधी को मारुति प्रोजेक्ट के लिए जमीन दिलाने में मदद की। आपातकाल के दौरान वे रक्षा मंत्री बनाए गए। 


भिवानी बार एसोसिएशन के चुनाव से उन्होंने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। कांग्रेस से जुड़ने के बाद वे हिसार जिला के अध्यक्ष बनाए गए। भगवत दयाल शर्मा की कुर्सी जाने के बाद कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था।




संजय गांधी आपातकाल लगाने को लेकर अपनी मां को मनाने का काम संजय ने ही किया था। संजय उस वक्त कांग्रेस के युवा संगठन में थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट से इंदिरा की सदस्यता खारिज करने के बाद संजय ने उनसे पीएम कुर्सी न छोड़ने की अपील की थी।


संजय का तर्क था कि अगर किसी दूसरे व्यक्ति को प्रधानमंत्री की कुर्सी दी गई तो वे तख्तापलट भी कर सकते हैं। आपातकाल की घोषणा के बाद संजय ने प्रशासन की पूरी कमान अपने हाथों में ले ली। 


संजय के निधन के बाद इंदिरा सरकार में मंत्री और प्रधानमंत्री बने इंद्र कुमार गुजराल ने एक इंटरव्यू में कहा था कि संजय की वजह से इंदिरा कैबिनेट से वे हटे। गुजराल ने कहा कि मैंने जब अखबारों की बिजली काटे जाने पर सवाल पूछा तो संजय ने झिड़क दिया।


इसके बाद दूरदर्शन पर इंदिरा गांधी के एक वक्तव्य प्रसारण को लेकर भी संजय से मतभेद हो गया। गुजराल के मुताबिक संजय अपने वरिष्ठों से सम्मान जनक तरीके से बात नहीं करते थे। संजय पर राजनीतिक विरोधियों को कुचलने और नसबंदी अभियान चलाने के आरोप लगे।


आपातकाल हटने के बाद संजय पर केस चला और दिल्ली पुलिस ने उन्हें एक मामले में गिरफ्तार भी कर लिया। उस वक्त संजय के नसबंदी किए जाने का मामला भी जोर-शोर से उठा, लेकिन जेपी के बीच-बचाव में उन्हें सरकार ने बचा लिया।


इंदिरा गांधी 1971 में रायबरेली के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने जीत हासिल की। समय से पहले कराए गए इस चुनाव में कांग्रेस को पूरे देश में जबरदस्त जीत मिली थी, लेकिन राजनरायण ने इंदिरा की सांसदी के खिलाफ कोर्ट में चुनौती दे दी।


राजनारायण का आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए। 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की बेंच ने राजनारायण के आरोप को सही माना और इंदिरा की सदस्यता रद्द कर दी।


इससे बौखलाई इंदिरा ने कैबिनेट की मीटिंग बुला ली। इंदिरा ने आनन-फानन में आंतरिक आपातकाल लगाए जाने की सिफारिश कर दी। आपातकाल लगाने की दूसरी वजह सरकार के खिलाफ आंदोलन था। देश के कई हिस्सों में महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ विपक्षी नेताओं ने आंदोलन शुरू कर दिया था।


आपातकाल की घोषणा 

खुद इंदिरा गांधी ने ही की थी। बाद में एक इंटरव्यू में भी इंदिरा ने स्वीकार किया कि भारत को एक 'शॉक ट्रीटमेंट' की जरूरत थी, इसलिए आपातकाल लगाया गया।


फखरुद्दीन अली अहमद 1974 में बड़े दावेदार गोपाल स्वरूप पाठक की अनदेखी कर इंदिरा गांधी ने फखरुद्दीन अली अहमद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया था। अहमद ने राष्ट्रपति बनने के एक साल बाद ही इंदिरा का यह कर्ज चुकता कर दिया।


1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने की बात राष्ट्रपति से कहने गईं, जिस पर अहमद ने बिना विचार किए सहमति दे दी। अहमद ने इंदिरा से कहा कि अगर कोई ऑप्शन नहीं है, तो फाइल भेज दीजिए।


प्रधानमंत्री कार्यालय से फाइल जाने के तुरंत बाद राष्ट्रपति अहमद ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए। त्वरित गति में लिया गये इस फैसले ने राष्ट्रपति की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए। हालांकि, अहमद ने कभी भी इस पर कोई जवाब नहीं दिया।

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