आनंद गुप्ता
पलिया कलां खीरी:विद्या भारती विद्यालय, सरस्वती विद्या मन्दिर इण्टर कॉलेज पलिया कलां खीरी में झांसी की महारानी रानी लक्ष्मी बाई की जयन्ती मनाई गई।
कार्यक्रम का सञ्चालन वरिष्ठ आचार्य सुनीत ने किया। मां सरस्वती जी एवं झांसी की रानी के चित्र के समक्ष पुष्पार्चन एवं वन्दना के पश्चात भैया बहनों को सम्बोधित करते हुए प्रधानाचार्य वीरेन्द्र वर्मा ने बताया कि हम जो बचपन में तज्ञता से सीखते हैं ।
वहीं जीवन के विविध क्षेत्रों में काम आता है। 19 नवम्बर 1835 को काशी में जन्मी मणिकर्णिका ने खेलने की उम्र में ही बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, तीरंदाज़ी घुड़सवारी सीख लिया।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी....
भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ।
इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें #झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम प्रमुख है।
वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं।
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था। अतः छोटी अवस्था में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव से हो गया। विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं।
उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो गया। दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे। युवावस्था के सुख देखने से पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं।
उन दिनों अंग्रेज शासक लार्ड डलहौजी की नीति के आधार पर ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे।
इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था।
पर उनके परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया।
इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये
जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी।
आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी टुकड़ी मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।
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