अदम गोंडवी की पुण्यतिथि पर विशेष
ए. आर. उस्मानी
आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको....
सभ्य समाज समानता, एकता, अखंडता की कितनी भी बड़ी बड़ी बातें क्यों न कर ले, जैसे ही उसके सामने उपरोक्त पंक्ति आएगी शायद बोलती बंद हो जाएगी। क्यों? वजह है हमारे समाज की वो सियाह हकीकत, जिसे कभी हम जानबूझकर तो कभी अनजाने में खारिज करते हैं, लेकिन 'अदम' हमसे अलग थे।
उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के समाज का वो चेहरा हमें दिखाया, जो भले ही बाहर से बहुत खूबसूरत हो, लेकिन जब हम उसके अंदर झांकते हैं तो वो बेहद डरावना दिखाई देता है। अदम यानी रामनाथ सिंह। वो शायर, जिसने हुकूमत और हुक्मरानों को तमाचा जड़ा और बिना किसी की परवाह किये डंके की चोट पर जड़ा। आज अदम गोंडवी की पुण्यतिथि है।
ऐसे में हमारे लिए ये जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर कैसे कोई शायर इतना निर्भीक, इतना निष्ठुर और इस हद तक मुखर हो सकता है कि जब हुकूमत उसके शेरों को सुने तो बचने के लिए मुंह छुपाए।
उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के आटा परसपुर गांव में जन्मे अदम गोंडवी एक ऐसे कवि और शायर थे, जिनके लिए शताब्दियों तक इंतजार करना पड़ता है। 22 अक्टूबर 1947 को पैदा हुए अदम गोंडवी की मृत्यु 18 दिसंबर 2011 को हुई। सामाजिक, राजनीतिक आलोचना के प्रखर कवि और शायर अदम गोंडवी का असली नाम यूं तो रामनाथ सिंह था, लेकिन सबने उन्हें ‘अदम गोंडवी’ के नाम से ही जाना।
उनकी रचनाओं में राजनीति और व्यवस्था पर किए गए कटाक्ष काफी तीखे हैं। उनकी शायरी में जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य नजर आता है। लेखनी में सत्ता पर शब्दों के बाण चलाना अदम की रचनाओं की खासियत है। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है।
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
हिंदी कविता में जब कुछ बड़े कवियों की धूम मची थी, तब अदम गोंडवी अपने श्रोताओं और पाठकों को गांवों की उन तंग गलियों में ले गए, जहां जीवन उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। वास्तव में यह इस देश की जनता ही है जिसने गोरखनाथ, चंडीदास, कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, सुब्रमण्यम भारती, रबींद्रनाथ टैगोर, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की रचनाओं को बहुत प्यार से सहेज कर रखा है।
वह अपने सुख-दुख में इनकी कविताएं गाती है। अदम गोंडवी भी ऐसे ही कवि थे। उन्होंने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, कोई काव्य नायक सृजित नहीं किया, बल्कि अपनी ग़ज़लों में इस देश की जनता के दुख-दर्द और उसकी टूटी-फूटी हसरतों को काव्यबद्ध कर उसे वापस कर दिया। आज़ादी के बाद के भारत का जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुभव है, वह अदम की कविता में बिना किसी लाग-लपेट के चला आता है। जिस साल भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली थी, उसी साल 22 अक्टूबर को अदम गोंडवी का जन्म गोण्डा ज़िले के आंटा परसपुर गांव में हुआ था।
उनके पिता ने उनका नाम रामनाथ सिंह रखा था, लेकिन उन्होंने अपना नाम अदम गोंडवी चुना। उन्होंने अपने कहन के लिए एक सरल भाषा चुनी। इतनी सरल कि कुछ ही दिनों में उत्तर भारत में किसी भी कवि सम्मेलन की शोभा उनके बिना अधूरी होती। उन्होंने लय, तुक और शब्दों की कारस्तानी से हटकर जनता के जीवन को उसके कच्चे रूप में ही सबके सामने रख दिया। वे जनता के दुख-दर्द को गाने लगे।
1980 के दशक में जब हिंदी कविता के विश्वविद्यालयी जीवन में कुछ बड़े कवियों के जीवन और रचनाकर्म की धूम मची थी, तो अदम अपने श्रोताओं और पाठकों को उत्तर भारत के गांवों की उन तंग गलियों में ले गए, जहां दलित जीवन उत्पीड़न का शिकार हो रहा था।
उन्होंने इन गलियों में जीवन के हरसंभव रूप को देखा और उसे सम्मान दिया।
दानिशमंदी और अदबी दुनिया के हर एक बाशिंदे की तरह अदम का भी सपना था कि एक समतापूर्ण समाज बने। इस सपने को पाने को हो रही गोलबंदी को ख़त्म करके भारत की जनता के सामने कुछ ऐसे मुद्दे ले आए गए, जिनके लिए लोग आपस लड़ मरे। इन मुद्दों ने भारतीय राजनीति के सवाल बदल दिए। अदम गोंडवी लिखते हैं…
ये अमीरों से हमारी फ़ैसलाकुन जंग थी,
फिर कहां से बीच में मस्जिद औ मंदर आ गए?
जिनके चेहरे पर लिखी है, जेल की ऊंची फसील,
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गए।
अदम ने बहुत नहीं लिखा। उन्होंने लिखने के स्थान पर कहने को चुना। वे जानते थे कि भारतीय कविता का सबसे बड़ा हिस्सा जन सामान्य की मौखिक परंपराओं में जीवित रहता है। उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हैं-
‘समय से मुठभेड़’ और ‘धरती की सतह पर।' उनकी अधिकांश ग़ज़लें लोगों को मुंहज़बानी याद हैं। हिंदी भाषी राज्यों में आप कोई निबंध प्रतियोगिता आयोजित कीजिए और उसमें युवाओं को पंचायतीराज पर लिखने को बोलिए। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उनमें से कोई न कोई युवा यह ज़रूर लिख देगा…
जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में,
प्रधान बन के आ गए अगली कतार में
राष्ट्रवाद और उसे धर्म एवं नृजातीय पहचानों से जोड़ने का सिलसिला यूरोप में बहुत पहले ही शुरू हो गया था. जब भारत की आज़ादी की लड़ाई आगे बढ़ रही थी तो कवि रबींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद के इस ख़तरे के प्रति आगाह किया था।
उन्होंने ध्यान भी दिलाया था कि भारत एक बहुलवादी समाज और संस्कृति वाला देश है। इसमें शक, कुषाण, हूण और कई अन्य नृजातीय समूह आकर मिल गए हैं। भारत को उन्होंने मनुष्यों का समुद्र कहा था। अदम ने इसी बात को इतिहास के उस दोराहे पर कहने की कोशिश की, जब किसी व्यक्ति को मारने से पहले उसकी चुटिया, तिलक, खतना या गले में लटके क्रॉस की जांच-पड़ताल की जाती है…
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
ग़र ग़लतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए
बाबर को हमारे रोज़मर्रा के जीवन में लाकर खड़ा किया जाता है और राजनीतिक लाभ लिया जाता है। गरीबी में पिस रहे लोग भुला दिए जाते हैं। अदम गोंडवी कहते हैं-
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग़मात को मत छेड़िए
यह उनकी ग़ज़लों की ताक़त थी कि वे गोण्डा से लेकर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू), लखनऊ से लेकर भोपाल तक सुने जाते थे।
हर बड़े रचनाकार की तरह उनकी ग़ज़लें लोगों को संवेदनशील बनाती थीं। अपने जीवन के अंतिम दौर में वे किंवदंती बन गए थे। उन्होंने अपनी सेहत पर ध्यान नहीं दिया, जिसके परिणामस्वरूप जीवन के अंतिम दौर में उन्हें काफी शारीरिक कष्ट उठाना पड़ा। उनके प्रशंसकों में गोण्डा के कलेक्टर रामबहादुर भी थे।
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था-विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहांं सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें
मशहूर शायर मुनव्वर राना अपनी किताब ‘ढलान से उतरते हुए’ में लिखते हैं- 'अदम जी ठाकुर थे, राजपूत ठाकुर। ज़मींदार भी थे, छोटे-मोटे ही सही। ज़ुल्म और नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ बग़ावती तेवर और क़ागज़ क़लम उठाने के लिए किसी जाति विशेष का होना ज़रूरी नहीं होता।
यह फूल तो किसी भी बाग़ में, किसी भी गमले में और कभी-कभी तो कीचड़ में भी खिल जाता है। समाजी नाइंसाफ़ियों और नाहमवारियों के ख़िलाफ़ उठी आवाज को ग़ज़ल बना देना सबके बस की बात नहीं होती। इसके लिए शताब्दियांं किसी अच्छे कवि का इंतज़ार करती हैं।'
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