अजनबी ही रहे
साथ रहकर हम अजनबी ही रहे,
दूर होकर भी कोई ख़ुदा बन गया,
वफ़ा करके भी हम बेवफ़ा ही रहे,
दग़ा देकर वो जान-ए-अदा बन गया।
प्यार से जब भी मैंने देखा उन्हें,
मेरी इश्क़-ए-निग़ाहें ख़ता बन गयीं,
बेरुख़ी से कोई पेश आता रहा,
वही जीने की उनकी वज़ह बन गया।
मैंने उनके सिवा उनसे मांंगा ना कुछ,
उनकी एक झलक को तरसते रहे,
कोई दौलत शोहरत सभी मांंगकर,
उनकी मुस्कान दिल की सदा बन गया।
धूप में बनकर साया रहे साथ में,
उनके हर दर्द-ग़म हम चुराते रहे,
ख़ुशियों में उनकी वो शामिल रहा,
आज वो हमसफ़र रहनुमा बन गया।
कवयित्री
'शारदेय' सुषमा श्रीवास्तव
कानपुर, उत्तर प्रदेश
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