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धरती को स्वर्ग बनाना है


कुछ मदिरा पीते हैं जग में
कुछ आँसू पीकर जीते हैं।
कुछ मेघ नीर बरसाते हैं
कुछ रहित सलिल से रीते हैं।।
कुछ के जीवन में पतझड़ है
मधुमास किसी का होता है।
हँसता-मुस्काता है कोई
दुर्दिन में कोई रोता है।।
वैभव-विलास में है कोई
वंचित की कुटिया खाली है।
रातों में कहीं उजाला है
दिन में भी रजनी काली है।।
कुछ असह्य वेदना से पीड़ित
कोई आनन्द मनाता है।
मोहताज कोई है दाने को
कुछ का दौलत से नाता है।।
यह विषम व्यवस्था है घातक
समरसता को अपनाना है।
बाँटो-तब अपना उदर भरो
धरती को स्वर्ग बनाना है।।


डॉ० दयाराम मौर्य 'रत्न'
प्रतापगढ़ (उ०प्र०)

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